Jun 25, 2011

राजभाषा की अवधारणा, हमारे कर्तव्य और मनमानी व्याख्याएँ

- अजय मलिक
[इस आलेख में व्यक्त विचार लेखक के एक भारतीय नागरिक के रूप में पूरी तरह निजी विचार हैं]

हमारा संविधान कब, कैसे और क्यों बना ? हमारे संविधान के किसी भाग के किसी अनुच्छेद में कोई प्रावधान विशेष क्यों किया गया ? हमारे संविधान में की गई व्यवस्थाएँ अच्छी हैं या बुरी, सही हैं या सही नहीं हैं ? ऐसे अनेक प्रश्न हैं जिन्हें जाने-अनजाने हर बहस का मुद्दा बनाया जाता है ।

एक आम भारतीय नागरिक के नाते इन प्रश्नों के उत्तरों की खोज में उलझने से कहीं बेहतर यह स्वीकारना क्या सही नहीं है कि हमने, हमारे पूर्वजों ने, हमारी व्यवस्था ने जो विधान हमें दिया है वह सर्वोपरि है उसका प्रत्येक अनुच्छेद, प्रत्येक पंक्ति और प्रत्येक शब्द 'विधि' अर्थात कानून है और कानून का पालन करना हर नागरिक का प्रथम कर्तव्य है? -एक ऐसा कर्तव्य जो अगर थोपा हुआ प्रतीत होता है तब भी विधि द्वारा अन्य कोई व्यवस्था किए जाने तक उसका पालन करने से बचा नहीं जा सकता?

संविधान में समसामयिक आवश्यकताओं के अनुरूप संशोधन आदि के लिए हमारे लोकतान्त्रिक रूप से चुने गए जनप्रतिनिधियों की सर्वोच्च सभा यानी हमारी संसद है।

हमारे लिए, हमारे द्वारा दिए गए विधान में किसी बात, तथ्य या कथ्य का क्या मतलब है अर्थात संवैधानिक प्रावधानों का वास्तविक अभिप्राय क्या है इसकी व्याख्या करने के लिए हमारा सर्वोच्च न्यायालय है।
 

इन सब सरल सी दिखने वाली बातों का एहसास हम सबको है। व्यवस्था ने हमें यानी समाज को विधान की सीमाओं में बाँधे रखने के लिए कार्यपालिका की अवधारणा तैयार की है । अगर मैं उसी कार्यपालिका में सेवारत एक सेवक हूँ जिसे देश के प्रथम नागरिक के प्रसाद एवं दिशा निर्देंशों के अनुरूप मेरे पद के लिए तय की गई सीमाओं में विधान का पालन करना और कराना है तो अपने मालिक यानी नियोक्ता से मैं जो भी आदेश, निदेश, निर्देश, सलाह अथवा मार्गदर्शन पाता हूँ उन्हीं के अनुरूप मैं अपनी सीमाओं में ‘पेंडुलम’ की तरह गति करने के लिए वचनबद्ध हूँ। मैंने यह वचनबद्धता या बाध्यता देश के नागरिक के नाते तथा सरकारी सेवक के नाते अपनी सेवा(वचनबद्धता) के बदले मिलने वाले वेतन के तहत स्वयं, स्वेच्छा से, बिना किसी दबाव के स्वीकार की है।

मैं अगर सेना का सिपाही हूँ तो देश की सीमाओं की रक्षा हेतु लड़ना, दुश्मन पर गोलियाँ चलाना, दुश्मन का संहार करना और शहीद हो जाना मेरा कर्तव्य है। अहिंसा इसमें कहीं आड़े नहीं आ सकती। मैं यदि एक सर्जन हूँ तो चीर-फ़ाडकर नासूर को निकालना मेरा कर्तव्य है । यदि मैं एक न्यायाधीश हूँ तो निर्मम हत्यारे को मृत्युदंड का आदेश देना मेरा कर्तव्य है। यहाँ भी अहिंसा आड़े नहीं आती।

व्यवस्था की अहिंसा की व्याख्या मेरी वैयक्तिक व्याख्या से भिन्न हो सकती है। ऐसे में मुझे क्या करना चाहिए? क्या मुझे अपनी अहिंसा की व्याख्या के अनुरूप दुश्मन पर गोली चलाने से इंकार कर कोर्ट मार्शल का सामना करना चाहिए?  क्या न्यायाधीश के रूप में मुझे निर्मम हत्यारे को फाँसी पर लटकाने का आदेश न देकर पद त्याग कर भर्त्सना का सामना/महाभियोग का सामना करना चाहिए? फिर व्यवस्था जो चाहे करे?

संविधान के अनुच्छेद 343 (1) के अनुसार संघ की राजभाषा देवनागरी लिपि में लिखी गई हिंदी है। संविधान के अनुच्छेद 345 के तहत अनुच्छेद 346 तथा 347 के प्रावधानों के अधीन विभिन्न राज्यों के विधान मंडलों द्वारा किए गए उपबंधों के तहत उनकी अपनी-अपनी एक या एकाधिक राजभाषाएं हैं। तमिलनाडु की राजभाषा तमिल है। केरल की राजभाषाएं मलयालम एवं अंग्रेज्री हैं। यही स्थिति अन्य राज्यों की है। वर्तमान में मैं तमिलनाडु का बाशिंदा यानी निवासी हूँ। मैंने स्वेच्छा से तमिलनाडु की राजधानी में अपना घर तलाशा है। मुझे तमिल नहीं आती। यह मेरी कमजोरी है। एक बहुत बड़ी कमजोरी, जिसे मुझे दूर करना ही होगा। किंतु मैं यह नहीं कह सकता कि मुझ पर तमिल थोपी गई है। 

मैं अगर केरल में तैनात हूँ और मुझे मलयालम का ज्ञान नहीं है तो यह मेरी एक बड़ी व्यक्तिगत कमजोरी है किन्तु केंद्रीय सरकार का कर्मचारी होने के कारण मुझे मलयालम में काम नहीं करना पड़ता क्योंकि हमारी व्यवस्था के विधान के अनुसार मुझे हिंदी या हिंदी के अतिरिक्त अंग्रेजी के प्रयोग की एक निर्धारित सीमा में छूट है । किंतु दफ्तर के बाहर यदि मुझे चपाती, तंदूरी रोटी या मक्के की रोटी और सरसों का साग नहीं मिलता और चावल-सांबार-रसम या इडली-दोसा खाकर ही मुझे काम चलाना पड़ता है तो यह विवशता व्यवस्था ने मुझपर नहीं थोपी है बल्कि यह विवशता मैंने स्वेच्छा से सरकारी सेवा के बदले वेतन हेतु स्वयं स्वीकार की है। जिन सेवा-शर्तों के साथ मैंने नौकरी करना स्वीकार किया उनके तहत देश के किसी भी हिस्से में सेवा करने का दायित्व मुझपर डाला जा सकता है। मैं अगर इसे स्वीकार न करते हुए त्यागपत्र देकर पलायन कर जाऊंगा तो कोई अन्य सरकारी सेवक इसे स्वीकार करेगा। यदि मेरी सेवा शर्तें संविधान की मूल भावना के विपरीत हैं तो मुझे इसकी अपील की छूट है किंतु ये सेवा शर्तें संविधान की मूल भावना के वास्तव में कितनी विपरीत हैं; हैं भी अथवा नहीं, इसका निर्णय करने का अधिकार न्यायालय का है।

अपने लेख ‘ संविधान में राजभाषा : सिंहावलोकन और विश्लेषण’ में श्री ब्रज किशोर शर्मा ने कहा है -‘ नियम-विनियम आदि अपने जनक अधिनियम के अनुरूंप हो सकते हैं, प्रतिकूल नहीं। कार्यालय आदेश या ज्ञापन तो नियमों के विरुंद्ध भी नहीं जा सकते।’ इसका अर्थ यह है कि संविधान सर्वोपरि है। अधिनियम संविधान का अतिक्रमण नहीं कर सकता। नियम, विनियम आदि का आधार अधिनियम होता है। प्रश्न यह है कि कार्यालय आदेश या ज्ञापन नियमों के विरुंद्ध हैं अथवा नहीं इसका निर्णय कैसे किया जाए? नियम आदि अधिनियम के प्रतिकूल हैं अथवा नहीं इसकी व्याख्या या आख्या कहाँ से प्राप्त की जाए? अधिनियम, संविधान का अतिक्रमण करता है अथवा नहीं; इसका निर्णय कौन करे?

एक सरकारी कर्मचारी के नाते मुझे यदि किसी कार्यालय आदेश में नियम विरुद्धता नजर आती है तो मुझे इसे सक्षम अधिकारी या प्राधिकारी के संज्ञान में लाना है। यदि फिर भी मुझे नियम विरुद्धता प्रतीत होती है तो मुझे न्यायालय में अपील करनी है। निचली अदालत के निर्णय से संतुष्टि न मिलने पर उससे बड़ी, यहा तक कि सर्वोच्च अदालत तक जाया जा सकता है। सर्वोच्च अदालत की व्याख्या अंतिम और सर्वमान्य है।

क्यों न राजभाषा से संबंधित एक वास्तविक घटना से आगे बढ़ा जाए ? केरल राज्य सरकार ने दिनांक 12.3.1987 को कुछ विभागों में सभी सरकारी पत्राचार मलयालम में किए जाने का आदेश जारी किया। श्री के. एम. राघवन, चिट्टी इंस्पेक्टर ने इस आदेश को यह कहकर मानने से इंकार कर दिया कि संविधान अथवा विधि द्वारा बनाया गया कोई कानून सरकार को केवल मलयालम को राजभाषा बनाने की शक्तियाँ प्रदान नहीं करता ।

इस मामले में केरल उच्च न्यायालय ने अपने दिनांक 17.8.1998 के निर्णय में संविधान के अनुच्छेद -345 की व्याख्या करते हुए कहा कि केरल राजभाषा अधिनियम 1969 ( यथा संशोधित 1973 ) की धारा- 1 (क) के अनुसार मलयालम एवं अंग्रेजी दोनों भाषाओं का प्रयोग सरकारी प्रयोजनों के लिए किया जा सकता है। किंतु धारा- 1 (ख) में सरकार को सरकारी प्रयोजनों के लिए मलयालम या अंग्रेजी भाषा के प्रयोग हेतु अधिसूचना जारी करने की शक्तियाँ भी प्राप्त हैं। साथ ही सरकारी प्रयोजनों के लिए अंग्रेजी भाषा के प्रयोग को जारी रखे रखने के विधान की आवश्यकता नहीं है क्योंकि संविधान के अनुच्छेद 345 में किसी राज्य को सरकारी प्रयोजनों के लिए अंग्रेजी भाषा के प्रयोग को जारी रखने की आवश्यकता तभी तक है जब तक कि विधि द्वारा राज्य विधान मंडल द्वारा अन्य कोई व्यवस्था नहीं की जाती । राज्य विधान मंडल को हिंदी अथवा अंग्रेजी के अतिरिक्त किसी अन्य भाषा के राजभाषा के रूंप में प्रयोग हेतु कानून बनाने की शक्तियाँ प्राप्त हैं। अत: वादी का यह तर्क सही नहीं है कि सरकारी अधिसूचना के अनुक्रम में कुछ विभागों में सभी पत्राचार मलयालम में किए जाने संबंधी आदेश के बाद भी अंग्रेजी का प्रयोग सरकारी प्रयोजनों के लिए किया जा सकता है।

माननीय केरल उच्च न्यायालय का के. एम. राघवन बनाम केरल राज्य सरकार मामले में दिनांक:17-08-1998 का आदेश (ओ पी नं0 13344/1998 L)

“The petitioner as a duty bound government servant is bound to obey the orders of superior officers which are quite consistent with the law of the land. It is not a case where the superior officers issued instructions without any jurisdiction or inconsistent with any of the law or of the constitution as wrongly contended by the petitioner. When the government takes a policy decision to use Malayalam as official language and in that direction takes necessary steps for the use of Malayalam language in certain departments, the petitioner cannot contend that he is not bound by such a decision. If such an argument is accepted as correct every officer will be justified in defying the instructions of superior officer stating that the policy decision of the government is wrong or unsustainable. The petitioner cannot act in such a manner derogatory of his status as a government servant. Under these circumstances, I do not find any justification to interfere with the order of suspension. The original petition is, therefore, dismissed.”

सरकारी प्रयोजनों के लिए राजभाषा के प्रयोग का विरोध करने से जुड़ा, केरल उच्च न्यायालय द्वारा निपटाया गया यह मामला अपने आप में अत्यन्त महत्वपूर्ण है।

इसी क्रम में राजस्थान उच्च न्यायालय की जयपुर खंडपीठ के वरुंण पंडित बनाम भारत सरकार एवं अन्य के मामले में दिनांक 6.5.2005 को दिए गए निर्णय पर चर्चा करना प्रासांगिक होगा । इस निर्णय के अनुसार सभी राष्ट्रीयकृत बैंक एवं वित्तीय संस्थाओं को द्विभाषिक इलेक्ट्रॉनिक उपकरण/साफ़्टवेयर का प्रयोग करना है। उपर्युक्त निर्णय के आधार पर सरकार ने आदेश जारी किए कि सभी मंत्रालय/विभाग एवं उनके अधीनस्थ कार्यालय, उपक्रम आदि सुनिश्चित करें कि उनके सभी कार्यालयों में उपयोग किए जाने वाले सभी कंप्यूटर्स एवं अन्य इलेक्ट्रॉनिक उपकरण/साफ्टवेयर द्विभाषी हों जिनमें हिंदी में काम करने की सुविधा हो। इस मामले में अवमानना याचिका भी दायर हुई और अंतत: उच्चतम न्यायालय ने मामले का निपटारा इस आदेश के साथ किया कि ‘जहाँ फिजिबिलिटी है वहाँ इलेक्ट्रानिक उपकरणों में द्विभाषिकता सुनिश्चित की जाए।’ उल्लेखनीय है कि आधुनिक सभी कंप्यूटर्स में बहुभाषिकता की फिजिबिलिटी है।

एक अन्य निर्णय केंद्रीय प्रशासनिक अधिकरण, गुवाहाटी ने 13.6.2006 को जितेन्द्र कुमार सिंह एवं अन्य बनाम भारत सरकार के मामले में सुनाया है जिसमें स्थानीय भाषा के ज्ञान की व्याख्या की गई है। उक्त निर्णय में वादी ने लम्बे समय तक नागालैंड में रहने तथा इंटरमीडिएट के बाद नागालैंड में ही अपनी शिक्षा पूरी करने के आधार पर स्थानीय भाषा का ज्ञान होने का दावा किया था। जिस पद के लिए दावा किया गया था उस पद हेतु अर्हताओं में दसवीं तक स्थानीय भाषा को एक विषय के रूंप में पढ़े होने को स्थानीय भाषा का कार्यसाधक ज्ञान होने का आधार माना गया था। कैट ने अपने निर्णय में स्पष्ट कहा कि वादियों को स्थानीय भाषा का ज्ञान नहीं है क्योंकि उन्होंने अपनी पढाई एक विषय के रूंप में स्थानीय भाषा लेकर पूरी नहीं की है।

‘दलवी बनाम तमिलनाडु राज्य’ मामले में उच्चतम न्यायालय के 1976 के निर्णय पर भी नज्रर डाली जानी चाहिए जिसमें संवैधानिक प्रावधानों के विरोध करने पर सरकारी सुविधाएं दिए जाने को त्रुटिपूर्ण बताया गया था। इसी प्रकार 'भारत सरकार बनाम मुरासोली मारन' मामले में 1977 के निर्णय में बताया गया था कि सरकारी कर्मचारियों के हिंदी सीख लेने पर अतिरिक्त अर्हता प्रदान करना अनुच्छेद 351 का उल्लंघन नहीं है।

अनुच्छेद 351 के तहत हिंदी का प्रसार बढाना संघ का कर्त्तव्य है। संघ का यह भी कर्त्तव्य है कि वह हिंदी का इस प्रकार विकास करें, जिससे वह भारत की सामासिक संस्कृति के सभी तत्वों की अभिव्यक्ति का माध्यम बन सके। हिंदी का प्रचार-प्रसार और केंद्रीय कार्यालयों में राजभाषा नीति का कार्यान्वयन दोनों बातें एक दूसरे की पूरक हो सकती हैं किंतु पूरी तरह एक नहीं कही जा सकतीं। हिंदी का प्रचार-प्रसार केंद्रीय कार्यालयों में भी किया जाता है तथा केंद्रीय कार्यालयों के बाहर आम जनता विशेषकर हिंदीतर भाषी प्रदेशों में विभिन्न गैर सरकारी संस्थाओं द्वारा भी किया जाता है। केंद्रीय कार्यालयों में राजभाषा नीति का कार्यान्वयन सरकार द्वारा लिए गए नीतिगत निर्णयों आदि के अनुसार प्रति वर्ष राजभाषा विभाग, गृह मंत्रालय द्वारा जारी किए जाने वाले वार्षिक कार्यक्रम में निर्धारित लक्ष्यों को प्राप्त करने से है। जहाँ एक ओर संघ की राजभाषा भारत के सभी नागरिकों से संबंधित है वहीं वार्षिक कार्यक्रम में निर्धारित लक्ष्य मूलत: केंद्रीय कार्यालयों के लिए हैं। सभी के लिए लक्ष्य समान भी नहीं है बल्कि विभिन्न क्षेत्रों के हिसाब से लक्ष्यों का निर्धारण किया गया है।

जहाँ एक ओर राजभाषा अधिनियम की धारा 3 (3) का शत-प्रतिशत अनुपालन देश-विदेश में स्थित भारत सरकार के सभी कार्यालयों के लिए अनिवार्य है वहीं हिंदी पत्राचार के मामलें में अलग-अलग लक्ष्य निर्धारित हैं। राजभाषा अधिनियम 1963, की धारा 3 (3) अथवा उसमें सम्मिलित दस्तावेज किसी अतिरिक्त व्याख्या की आवश्यकता नहीं रखते। किंतु फिर भी जाने-अनजाने में धारा 3 (3) में शामिल दस्तावेजों की मनमानी व्याख्याएं की जाती हैं। उदाहरण के लिए कुछ केंद्रीय कार्यालय मात्र 'ज्ञापन' को ही धारा 3 (3) का दस्तावेज मानते हैं तो कुछ कार्यालय मात्र 'परिपत्र' को। अधिकांश अधीनस्थ एवं शाखा कार्यालयों द्वारा धारा 3 (3) के तहत जारी दस्तावेजों की संख्या ‘शून्य’ दिखाई जाती है यद्यपि जिस रिपोर्ट में यह ‘ शून्य ’ दर्ज़ किया जाता है वह रिपोर्ट अपने आप में धारा 3 (3) का दस्तावेज है। यदि किसी कार्यालय के अधीनस्थ कार्यालयों की संख्या 500 है तो संबंधित तिमाही में उस कार्यालय से समेकित रूप में जारी धारा 3 (3) के दस्तावेजों की न्यूनतम संख्या मात्र हिंदी के प्रयोग से संबंधित तिमाही रिपोर्ट के आधार पर ही 500 हो जाती है।

संसदीय राजभाषा समिति का गठन राजभाषा अधिनियम की धारा 4 (1) के अधीन किया गया। समिति को लघु संसद के रूप में भी जाना जाता है क्योंकि समिति में दोनों सदनों के और लगभग सभी राष्ट्रीय दलों के माननीय सांसद होते हैं। संसद को जो विशेषाधिकार प्राप्त हैं वे सभी स्वत: ही संसदीय राजभाषा समिति को प्राप्त हो जाते हैं। एक अन्य महत्वपूर्ण पक्ष यह भी है कि यह समिति अपने प्रतिवेदन महामहिम राष्ट्रपति जी को प्रस्तुत करती है। संसद या संसदीय समिति को दी जाने वाली सूचना की प्रामाणिकता असंदिग्ध है। ऐसा न होने की स्थिति में विशेषाधिकार हनन अथवा संसद की अवमानना का मामला बन सकता है ।

कई बार राजभाषा से जुड़े मामलों में मनमानी व्याख्याओं के कारण रिपोर्टों में दी जाने वाली सूचना अपूर्ण रह जाती है। एक ओर समिति की निरीक्षण प्रश्नावली का मामला है तो दूसरी ओर शाखा कार्यालयों से चलने वाली रिपोर्टें मंडल, क्षेत्रीय तथा अंचल कार्यालयों से होकर जब मुख्यालय पहुँचती हैं तो वहीं की होकर रह जाती हैं। मुख्यालय द्वारा मंत्रालय को या तो समेकित सूचना नहीं भेजी जाती या फिर वास्तविक सूचना को सुविधानुसार संपादित कर दिया जाता है। विभिन्न मंत्रालयों से होते हुए यह सूचना राजभाषा विभाग को पहुँचती है और वहाँ से वार्षिक रिपोर्ट/वार्षिक मूल्यांकन रिपोर्ट के रूप में आगे बढ़ जाती है। दोनों ही स्थितियों में संवैधानिक संकट की स्थिति बनती है । पता इस बात का लगाया जाना चाहिए कि जब सभी कार्यालयाध्यक्षों द्वारा भारत सरकार की राजभाषा नीति के अनुपालन की जिम्मेदारी अक्षरश: निभाई जाती है तो फिर इस तरह की अप्रिय स्थिति के लिए कौन जिम्मेदार है ?

राजभाषा संबंधी मनमानी व्याख्याओं का क्षेत्र अत्यंत व्यापक है। सबसे पहले सरकार के सरकारी कर्मचारियों के हिंदी सिखाने के प्रयासों पर एक नजर डाली जाए। वर्ष 1952 से प्रारंभ हुई यह कवायद लगातार जारी है। वर्ष 1960 के राष्ट्रपति जी के आदेशों के बाद केंद्रीय सरकार के कर्मचारियों के लिए हिंदी सीखना कर्त्तव्य की श्रेणी में आता है। अधिकांश कर्मचारी सीख भी रहे हैं। राजभाषा नियम 1976 के बाद केंद्रीय कार्यालयों एवं कर्मचारियों की नई परिभाषाओं से क्षेत्र संख्या विस्तार भी हो चुका है। नियम - 10 में ‘कार्यसाधक ज्ञान’ की स्पष्ट परिभाषा उपलब्ध है। राजभाषा विभाग द्वारा इस बारे में ‘एक भाषा’ से अभिप्राय: को स्पष्ट करने के लिए स्पष्ट आदेश आदि भी जारी किए जा चुके हैं। राजभाषा के मामलों में राजभाषा विभाग नोडल एजेंसी है। अत: राजभाषा विभाग के आदेश राजभाषा नियम, अधिनियम और संविधान के प्रावधानों के तहत ही जारी किए गए हैं। इन आदेशों की स्पष्टता को लेकर संदेह नहीं होना चाहिए। यदि है तो भी इस बाबत किसी न्यायालय से व्याख्या करने की अपील भी नहीं की गई है। उसके बावजूद यदि कोई यह कहता है कि हमने राजभाषा विभाग के आदेशों को, हमारे केंद्रीय कार्यालय द्वारा लिए गए निर्णय के आधार पर स्वीकार नहीं किया है अथवा लागू नहीं किया है तो इसे क्या माना जाना चाहिए ?

यही स्थिति हिंदी का ज्ञान अथवा प्रवीणता होने के मामले से जुड़े ‘घोषणा पत्र’ से भी पैदा की जाती है। घोषणा पत्र की भाषा बेहद सरल एवं स्पष्ट है। नियम 10 (1)(ख) में कहा गया है कि “ यदि वह इन नियमों से उपबद्ध प्रारूप/ प्ररूप में घोषणा करता है.....तो उसे कार्यसाधक ज्ञान/ प्रवीणता प्राप्त माना जाएगा।”

प्रारूप/ प्ररूप की भाषा है- “ मैं एतद् द्वारा घोषणा करता हूँ कि निम्नलिखित के आधार पर मुझे हिंदी में प्रवीणता प्राप्त है / मैंने हिंदी का कार्यसाधक ज्ञान प्राप्त कर लिया है-” इन आधारों से उठ सकने वाले संकट पर नजर डालें तो स्थिति विकट हो जाती है क्योंकि लगभग 90 प्रतिशत घोषणा पत्रों में कोई आधार ही नहीं बताया जाता है। घोषणा पत्र में कुछ जगह ऐसे भी आधार दिए हो सकते हैं- “एज् आई डॉन्ट नो हिंदी, आई नीड ट्रेनिंग।” अथवा “मैंने दो साल दिल्ली में नौकरी की है अत: मुझे हिन्दी का कार्यसाधक ज्ञान प्राप्त है।”

यदि उत्तर प्रदेश का निवासी, जिसने मात्र प्रौढ़ शिक्षा की कक्षाओं में हस्ताक्षर करना भर सीख लिया है उपर्युक्त प्रारूप/ प्ररूप में “उत्तर प्रदेश् का हिंदी भाषी निवासी” होने के आधार पर घोषणा करे कि उसने हिंदी का कार्यसाधक ज्ञान प्राप्त कर लिया है तो क्या इससे देश, समाज अथवा राजभाषा नीति का संवैधानिक दायित्व पूरा हो पाएगा? उल्लेखनीय है कि उत्तर प्रदेश में भी अनेक बच्चे दसवीं/मैट्रिक की परीक्षा में हिंदी में फेल होते हैं।

राजभाषा अधिनियम 1963 ( यथासंशोधित, 1967 ) के प्रयोजनों को कार्यान्वित करने के लिए नियम बनाने की शक्तियों के तहत केंद्रीय सरकार द्वारा राजभाषा नियम 1976 बनाए गए। नियम 1 (2) के अनुसार इन नियमों का विस्तार, तमिलनाडु राज्य के सिवाय संपूर्ण भारत पर है। ऐसी व्यवस्था कतिपय समसामयिक संवैधानिक कारणों से की गई। किंतु यह इसलिए नहीं किया गया कि तमिलनाडु में राजभाषा हिंदी के प्रति स्वीकार्यता की कमी थी। स्वीकार्यता में कमी के कारण ऐसा कर पाना इसलिए भी कठिन था क्योंकि राजभाषा अधिनियम 1963 तमिलनाडु पर भी ठीक उसी तरह लागू था, लागू है, जिस प्रकार हिंदी भाषी राज्यों पर। साथ ही अधिनियम के प्रयोजनों को कार्यान्वित करने के लिए धारा-8 के अधीन प्राप्त नियम बनाने की शक्तियों का प्रयोग तमिलनाडु में इन प्रयोजनों को कार्यान्वित ‘ न ’ करने के लिए किया भी नहीं जा सकता था। ऐसा कैसे संभव हो सकता है कि अधिनियम लागू है किंतु उसका कार्यान्वयन लागू न हो ? यहाँ संसदीय राजभाषा समिति की निरीक्षण प्रश्नावली का जिक्र करना उपयोगी होगा। निरीक्षण प्रश्नावली में नियमों से संबंधित समस्त सूचना तमिलनाडु में स्थित केंद्रीय कार्यालयों से अन्य राज्यों में स्थित कार्यालयों की तर्ज पर ही ली जाती है। यहाँ चिन्तन इस मुद्दे पर भी किया जाना चाहिए कि नियम - 1 एवं 2 में नाम, विस्तार एवं परिभाषाएं हैं। 

नियम 3(3) में ग’ क्षेत्र की राज्य सरकारों/केंद्रीय कार्यालयों से इतर कार्यालयों एवं व्यक्तियों के साथ अंग्रेज्री में पत्राचार की छूट का मसला है। नियम 6, धारा 3 (3) की पुनरावृत्ति भर है। नियम 9, 10 एवं 11 राष्ट्रपति जी के 1960 के आदेशों के अनुसरण में हैं। शेष नियमों के प्रावधानों के तहत आने वाली मदों के लिए संसदीय राजभाषा समिति की सिफ़ारिशों के आधार पर 1987 से अब तक 08 खंडों मेँ राष्ट्रपति जी के आदेश आ चुके हैं। ऐसी परिस्थिति में तमिलनाडु राज्य में स्थित केंद्रीय कार्यालयों के लिए किसी बड़े अंतर का विचार समुचित नहीं कहलाएगा। यहाँ मैं संविधान लागू होने के बाद आई तीसरी पीढ़ी की बात कर रहा हूँ। इस पीढ़ी को श्री एन. वी. गाडगिल के संविधान सभा में दिनांक: 13.9.1949 को दिए भाषण को पढ़ना होगा ; समझना होगा। उन्होंने राजभाषा के मुद्दे पर कहा था - “ हमें कुछ प्रश्नों को 10-15 वर्ष पश्चात आने वाली पीढ़ी के लिए छोड़ देना चाहिए।” इन छोड़े हुए प्रश्नों को पिछले 61 वर्षों में आई अन्य 3 पीढि़यों ने यथावत् छोड़ दिया है। बल्कि प्रश्नों में कुछ और प्रश्न जोड़कर संख्या में इजाफ़ा भी किया है।

आज हम सूचना के अधिकार के अधिनियम के दौर में हैं। छुपी हुई सूचना तक मात्र दस रुंपए में सार्वजनिक कराई जा सकती है। राजभाषा के मामले में ऐसी कोई गोपनीय सूचना शायद ही हो जिसके लिए ‘सूचना का अधिकार अधिनियम’ के तहत छूट मिल सके। फिर यह कब तक चलेगा कि हिंदी में सभी पत्र भेजने का दावा तो सब करें मगर हिंदी पत्र प्राप्त होने के दावे से बचते रहें ? ‘ ग ’ क्षेत्र का विशेष रूंप से जिक्र करना चाहूँगा जहाँ पत्राचार के आँकड़ों में केंद्रीय सरकार के कार्यालयों से इतर कार्यालयों, व्यिक्तयों को भेजे गए पत्रों को शामिल करने की आवश्यकता नियम 3 (3) के प्रावधानों के तहत नहीं है। ऐसी स्थिति में किसी मंत्रालय के अधीनस्थ कार्यालयों या शाखाओं से रिपोर्ट में दिए जाने वाले पत्राचार के अधिकांश आंकड़ें उसी मंत्रालय के अधीनस्थ कार्यालयों या अन्य शाखाओं अथवा नियन्त्रक कार्यालय को भेजे गए हिंदी पत्रों से संबंधित होते हैं। 80 प्रतिशत तक हिंदी में पत्र भेजने का दावा तभी सच प्रतीत हो सकता है जब 40-50 प्रतिशत हिंदी में पत्रों की प्राप्ति भी हो।

आजकल अनेक मामले न्यायालयों तक जाने लगे हैं। इलेक्ट्रानिक उपकरणों में द्विभाषिक साफ्टवेयरों का मामला भी इसी श्रेणी का है। क्या हम न्यायालय के आदेशों के अनुपालन से बच सकते हैं ? सरकारी निधि का, सरकारी प्रयोजनों के लिए, सरकार की नीति के अनुरूप उपयोग करने में हमें क्या परेशानी हो सकती है? जब सरकार ने एक निर्णय लिया है तो उस निर्णय को युक्तियुक्त मानना ही चाहिए। किसी भी ‘हित’ का नाम देकर, काम में कठिनाई की बात उठाकर सरकार के निर्णय के अनुसार कार्रवाई करने से बचने का प्रयास वेतन भोगी सरकारी सेवकों के लिए कदाचित उचित नहीं कहा जा सकता।

यहाँ एक सरकारी हिंदी सेवक मित्र का वक्तव्य उद्घृत करना चाहूँगा - “ श्रीमान जब हिंदी पुस्तकों को हिंदीतर भाषी क्षेत्रों में कोई छूता तक नहीं, फिर 50 प्रतिशत पुस्तकों का बजट हिंदी पुस्तकों पर खर्च करने का क्या औचित्य है?” मेरा उत्तर था - “सरकारी सेवक का, सरकारी बजट से, सरकारी आदेशों के अनुरूप हिंदी पुस्तकों की खरीद के औचित्य पर प्रश्न करने का क्या औचित्य है?” समस्या यही है कि हम ‘ नीति ’ का पालन करने की बजाय उसके औचित्य पर प्रश्न करने में ज्यादा विश्वास रखते हैं, जिसका संवैधानिक अधिकार एक सरकारी सेवक के नाते तो हमें प्राप्त नहीं ही है।

इसी तरह का एक और उदाहरण एक सरकारी बैठक में घटी घटना से देना चाहूँगा। “ बैठक में विभिन्न कार्यालय प्रमुखों ने सर्वसम्मति से निर्णय लिया कि सभी कार्यालयों में केवल अंग्रेजी में बनी रबड़ मोहरों को जब्त कर लिया जाए।” एक सरकारी हिंदी सेवक/ हिन्दी अधिकारी मित्र ने विरोध या अवरोध के स्वर में निर्णय लिए जाते ही तुरंत बैठक में ही आपत्ति उठाई - “ ऐसा करने से तो कामकाज ठप को जाएगा।” कुल मिलाकर राजभाषा अनुभाग में कार्यरत मित्रवर को हिंदी या राजभाषा से अधिक राजभाषा नीति के अनुपालन की दिशा में लिए गए उच्च अधिकारियों के एक निर्णय से ‘कामकाज’ ठप होने की चिन्ता थी।

केंद्रीय कार्यालयों से द्विभाषी में जारी पत्रों को हिंदी के पत्रों की संख्या में शामिल करने की अनुमति है बशर्ते कि मूल पत्र हिंदी में तैयार किया गया हो तथा आवश्यकतानुसार अंग्रेज्री में अनुदित किया गया हो। यह ऐसी सीधी-सादी भाषा में लिखा गया पूरी तरह स्पष्ट वाक्य है जिसमें किसी भी अर्थ भिन्नता के लिए स्थान नहीं है। द्विभाषी का अभिप्राय: हिंदी और अंग्रेजी से है अन्य किसी भाषा से नहीं। यहाँ राजभाषा अधिनियम के मूल भाव को भी अभिव्यक्ति दी गई है यानी हिंदी के अतिरिक्त अंग्रेजी का प्रयोग किया जा सकता है। किंतु इसका अभिप्राय: अंग्रेजी के अतिरिक्त हिंदी के प्रयोग से लगाना सही नहीं है। इस प्रावधान की वैयक्तिक व्याख्या यदि अंग्रेजी में तैयार किए गए पत्र में ‘ महोदय ’ और ‘ भवदीय ’ दो हिंदी शब्द लिखकर मुक्ति पाने से है तो इसे प्रावधान के अनुरूंप कैसे माना जा सकता है?

इसी तरह का एक मामला एक ‘पद’ के लिए विभागीय कर्मचारियों से आवेदन मंगाने के लिए जारी विज्ञापन में देखने को मिला। प्रारम्भ में दो पंक्तियाँ हिंदी तथा अंग्रेजी में थीं जिनमें पद का नाम तथा आवेदन प्रस्तुत करने का निदेश था, शेष सभी नियम एवं शर्तें यहाँ तक कि शैक्षणिक योग्यताओं का विवरण भी मात्र अंग्रेजी में था। ऐसे उदाहरणों तथा विज्ञापनों से आसानी से समस्या खड़ी हो सकती है क्योंकि कोई भी अनुवाद मूल पाठ से भिन्न कैसे हो सकता है ? मूल पाठ यदि अंग्रेजी में है तो वह हिंदी के पत्रों में नहीं गिना जा सकता और यदि हिंदी में है तो वह प्राधिकृत पाठ है। इस हिसाब से उपर्युक्त विज्ञापन में, मूल पाठ में शैक्षणिक योग्यताओं का ज्रिक्र तक नहीं है। मूल पाठ प्राधिकृत है तथा उपर्युक्त विज्ञापन में तथाकथित मूल पाठ में शैक्षणिक योग्यताओं का जिक्र तक नहीं है। कोई नियम अथवा शर्त भी नहीं है। ऐसी स्थिति में यदि कोई अक्षर ज्ञान तक न रखने वाला व्यक्ति /कर्मचारी उक्त पद के लिए आवेदन प्रस्तुत करता है तो क्या उसे अस्वीकार या रद्द कर दिया जाना विधिमान्य होगा?

हिंदी पत्रों के मामले में मनमानी व्याख्याओं पर पूरा शोध प्रबंध तैयार किया जा सकता है। द्विभाषी में मुद्रित ‘ पत्र शीर्ष ’ पर शत-प्रतिशत अंग्रेजी में भेजे गए पत्रों को हिंदी के पत्र माने जाने के भी अनेक उदाहरण हैं। हिंदी में हस्ताक्षरित अंग्रेजी पत्रों का मामला पुराना पड़ चुका है मगर अभी भी बहुतायत से प्रचलन में है। नियम-7 में जो प्रावधान कर्मचारियों की सुविधा के लिए किया गया था तथा जिससे प्रशासन को और अधिक हिंदी में पत्राचार की मजबूरी बनती थी उस प्रावधान की मनमानी व्याख्या ने हिंदी के कामकाज को पूरी तरह बाधित कर दिया। इसके ठीक विपरीत दूरबीन या खुर्दबीन से देखे जा सकने वाले एक या दो हिंदी शब्दों से अलंकृत अंग्रेजी पत्रों को प्राप्त करने वाले कार्यालय ने नियम- 5 के तहत हिन्दी के दस्तावेज नहीं माना। क्यों ?

नियम-11 एवं राष्ट्रपति के 1992 के आदेशों के अनुपालन में लेखन सामग्री आदि का द्विभाषी में मुद्रण अनिवार्य है। किंतु द्विभाषी में मुद्रित लेखन सामग्री पर जब तक हिंदी में भी काम न किया जाए तब तक अंग्रेजी में टंकित दस्तावेजों को हिंदी अथवा द्विभाषी किस तरह माना जा सकता है ? क्योंकि नियम-11, नियम-5 तथा धारा 3 (3) के दस्तावेज पूर्णत: भिन्न बातें हैं।

क्या मात्र वैयक्तिक व्याख्याओं के कारण अनुबंध एवं करार को धारा 3 (3) के दस्तावेजों में न गिना जाना विधिसम्मत है? जब तक कि राजभाषा अधिनियम में विधि द्वारा अन्य कोई संशोधन नहीं किया जाता तब तक ऐसा करना अधिनियम का उल्लंघन कहलाएगा। विचित्र तथ्य यह है कि अधिकांश मामलों में इन दस्तावेजों को किसी भी मद में नहीं जोड़ा जाता।

सरकारी राजभाषा नीति प्रोत्साहन एवं प्रेरणा से ओत-प्रोत है। किंतु यह प्रोत्साहन राजभाषा में कामकाज को बढ़ावा देने के लिए है न कि सरकारी नीति, संविधान, अधिनियम, नियम या सरकारी आदेश की सुविधा अथवा इच्छानुसार व्याख्या कर राजभाषा हिंदी के प्रचार-प्रसार को बाधित करने के लिए। लोकतंत्र में लोकमत के आधार पर लिए गए निर्णयों, बनाए गए कानूनों की व्याख्या व्यक्तिवादी कदापि नहीं हो सकती ।

हम भारत के लोगों ने, अपने लिए जो विधान दिया है,
उस विधान का सम्मान हमें करना ही होगा।

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3 comments:

  1. महोदय,
    बहुत अच्छा आलेख लिखने के लिए किए गए श्रम एवं शोध कार्य के प्रति मेरा नमन।
    अगले किसी आलेख में राष्ट्रपति जी के आदेशों के प्रति सरकारी कार्यालयों में खुलेआम हो रही अवहेलना और दादागीरी पर भी प्रकाश डालें, साथ ही हिन्दी अधिकारियों, अनुवादकों आदि के वेतन मान आदि में चल रही विसंगतियों के ऊपर भी लिखने का अनुरोध है।
    आदरणीय मनोज सर से भी निवेदन है कि अपने बोर्ड के अंतर्गत हिन्दी कर्मचारियों के प्रति हो रही उपेक्षा एवं अपमानजनक व्यवहार पर थोड़ा ध्यान दें कि श्री जे.एन.सिंह जैसे वरिष्ठ एवं सर्वप्रिय विनम्र व्यक्ति को भी सेवानिवृत्ति के बाद विसंगतियों के निराकरण के लिए भूख हड़ताल पर बैठना पड़ रहा है।
    सादर,
    डॉ राजीव कुमार रावत
    हिन्दी अधिकारी
    भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान खड़गपुर

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  2. महोदय,
    बहुत ही ज्ञानवर्धक आलेख।
    सादर,
    सुरेश कुमार सोनी
    संग्रहालयाध्यक्ष 'ब'
    आंचलिक विज्ञान केंद्र
    भोपाल

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