Jun 22, 2010

साल का सबसे लंबा दिन, दिल के साथ दिल्लगी के कारण अस्पताल में -1

सभी दोस्तों ने दिल से कहा कि दिल के के मामलों में दिल्लगी ठीक नहीं। बात तो सोलह आने सच्ची, खरी और आजमाई हुई थी मगर हमारा मानना था किएक दिल ही तो है जिसके साथ दिल्लगी की जा सकती है। अब अगर दिल के साथ दिल्लगी ठीक नहीं और, और किसी के साथ दिल्लगी संभव नहीं है तो फिर दिल्लगी किस काम की, इसका करें भी तो क्या ?
सवाल गंभीर था और दिन सबसे लंबा दोस्तों, शुभचिंतकों और चिकित्सकों सबकी राय को दिल्लगी की तुलना में ज्यादा तवज़्ज़ो देते हुए हम पूरे दिन का वार-पार का प्रोग्राम बनाकर दिल के हाथों मज़बूर सुबह-सुबह अस्पताल के लिए निकल पड़े। कागजों का पेट बमुश्किल ही भरता है फिर भी भरना ज़रूरी होने के कारण सबसे पहले रद्दी कागज वाले के यहाँ पहुंचे।
रद्दीवाले की दुकान बंद थी और दुकानदार बाहर टहल रहा था। कचरे वाला दुकान की चाबी लेकर गायब था। एक दिन पहले दुकानदार कचरे वाले के हाथों दुकान सौंपकर शाम के किसी जरूरी काम से कहीं चला गया था... जाता तो रोज ही था मगर उस दिन से पहले उसे इस तरह टहलना नहीं पड़ा था इसलिए उसे यह ख्याल आ रहा था कि कम से कम कल शाम, शाम के जरूरी काम से नहीं जाना चाहिए था और अगर गया भी था तो कचरे वाले को सब कुछ सौंप कर नहीं जाना चाहिए था। कई ग्राहक लौट चुके थे। कचरे वाला बेहद वफादार था। आज सुबह, सुबह के किसी जरूरी काम में फंस गया था जिसकी वजह से चाबी नहीं पहुंचा पाया।
कचरे वाले के आ जाने पर दुकान खुल गई। हमने पूछा कितने किलो से कागजों का पेट भर जाएगा... या फिर ऐसा कीजिए आप खुद ही हिसाब लगाकर दे दीजिए। वहां कई ग्राहक जाने - पहचाने थे। हमारे दिल के साथ चल रही दिल्लगी की बात सुनकर वे प्रसन्न थे। मन ही मन कह रहे थे- दिल्लगी का बहुत शौक है जनाब को... अब आटे-दाल के सही भाव पता चलेगा जब अपने दिल पर गुजरेगा दिल्लगी का कहर। मगर प्रसन्न चेहरे से वे सांत्वना दे रहे थे- सब ठीक हो जाएगा... आप टेंशन लेना छोड़ दीजिए।
कागजों की भरपूर खुराक का इंतजाम कर हम अस्पताल पहुँच गए। वहां जो आमतौर पर होता है वही हुआ। पूरी तहकीकात और तसल्ली करने के बाद एक लाइन में खड़े हो गए, बिना लाइन वाले हमें धकेलते रहे । कुछ हमें पछाड़ कर आगे भी निकल गए मगर हम दिल थाम कर खड़े रहे... अस्पताल में थे तो इस बात का भरोसा भी था कि अगर दिल के झटके से गिर-गिरा भी गए तो भी एक-आध घंटे के अन्दर तो सही डॉक्टर के पास पहुंचा ही दिए जाएंगे और अगर नहीं भी पहुंचाए गए तो भी जिम्मेदारी अस्पताल की होगी। यहाँ से ज़िंदा वापस भेजने की मजबूरी के तहत कुछ तो हाथ-पैर हिलाए ही जाएँगे। इससे पहले कि हम गिरें , हमारा हाथ खिड़की में प्रवेश कर गया । हमारे हाथ के कागजात एक दूसरे हाथ ने संभाल लिए। हमें थोड़ी तसल्ली हुई और हमारे दिल को थोड़ी राहत कि चलो पहला पड़ाव तो पार हुआ।
मगर यह क्या हमें पहली खुराक लताड़ की मिली - " आप पहले वहां ...उस कौने में जाकर कागजों का पेट भरिए, उसके बाद गल्ले के पेट की चिंता कीजिए।" हमने उन्हें बताया कि भाई हम तो हर तरह की रद्दी की खुराक लेकर आएं हैं मगर उस कौने वालों ने ही हमें यहाँ धकेला था, यह कहते हुए कि आज सारे पेट भरे हुए हैं इसलिए आप सीधे गल्ले पर चले जाइए।
हमारा तर्क नहीं सुना गया। दिन लंबा था और हम सारा कुछ ठान कर आए थे इसलिए इशारा किए गए कौने में जाकर शुरू हो गए। कौने वाले ने बताया -" इतनी देर में आप की ताकत का भी पता चल गया और हमारे एक कागजी पेट में थोड़ी सी जगह भी बन गई, आप चिंता मत कीजिए थोड़ी सी रद्दी का तड़का लगाकर इसे भर दीजिए।" (जारी)

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