Sep 4, 2010

मगर क्या करूँ ‘कंट्रोल’ नहीं होता।

कुछ कहने पर तूफान उठा लेती है दुनियाँ… मगर क्या करूँ ‘कंट्रोल’ नहीं होता।

हिंदी की तनख्वाह से जो नित अँग्रेजी शराब का आनंद उठाते हैं और अँग्रेजी के प्रति जिनका मोह बस अँग्रेजी शराब के प्रति मोह जितना है… रोज मदिरापान के बाद नशाबंदी पर प्रवचन देना जिनकी लत है और हर शाम जिसकी भी मिल जाए मुर्गे, बकरे या भैंसे की टांग चबाने के बाद अहिंसा पर भाषण देकर नकदी प्राप्त करना जिनकी नियति है… जो हिन्दी के औपचारिक और अनौपचारिक ट्यूशन्स के लिए जाने जाते हैं… जिनके वाक्यों की संरचना कुछ ऐसी होती है -
“मैं जो आपको आठ आना दिया हूँ वो उनके कहने पर दिया हूँ“…
जो हिन्दी के बड़े ठेकेदार होते या कहे जाते हैं और दिन-रात हिंदी के नदी-नाले, पुल, बंकर आदि बनाने के बड़े-बड़े ठेके जिनके नाम पर छूटते हैं… सितंबर के महीने में जिनकी ठेकेदारी कुछ ज्यादा ही फलती-फूलती है… हर साल जो इस मौसमी महीने में सैंकड़ों हिंदी के पुल रेत के घरोंदों की तरह बनवाने का ढिंढोरा पीटकर फूली-फूली चुनते और चुगते हैं… अँग्रेजी की बेहद मरी-मरी सी लहरें जिनके बनाए तथाकथित पुल वगैरा को पल भर में मटियामेट कर देती हैं… जो अपने टेंडर हमेशा अँग्रेजी में भेजते हैं… जो अँग्रेजी की मोहर को रुतबे का प्रतीक मानते हैं तथा अँग्रेजी में लिखी अपनी नामपट्टिका को देखकर गद्गद हो जाते हैं… हिंदी की दुहाई देते हुए हिंदी भाषियों तक के हिन्दी मेँ भेजे गए पत्रों के जवाब में जो अँग्रेजी पत्रों द्वारा हिंदी में कामकाज करने के नुस्खे बताते हैं और यह सब वे हिंदी की सेवा के नाम पर करते हैं… हिंदी के साथ-साथ अँग्रेजी पर भी जिनकी पकड़ उतनी ही जबरदस्त और मजबूत है जितनी सड़क पर लावारिस पड़े केले के छिलके और उस पर अनजाने में पड़ जाने वाले किसी बदकिस्मत पैर की होती है…

हिंदी के ऐसे सदाबहार ठेकेदार महापुरुषों को मेरा प्रणाम।
उनके लिए क्या आप भी कोई संदेश देना चाहेंगे?

2 comments:

  1. संदेशा तो क्या-प्रणाम ही दे दिजियेगा हमारा भी. :)

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  2. उन्हें बता दीजिए कि आज-कल भरी सभाओं में जूते हवा में उछलकर आने लगे हैं.

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