Mar 25, 2013

अज्ञेय जी की कुछ कविताएँ

[ ये कविताएँ ओम थानवी जी ने फेसबुक पर पोस्ट की हैं। वहीं से साभार]

(सफर में अज्ञेय का सारा काव्य फिर पढ़ गया। देखिए, ये कविताएँ भी अज्ञेय की ही हैं। लेकिन जिन्हें ऐसी रचनाओं को नजरअंदाज करना है, वे इनको देखकर भी नहीं देखेंगे! (बरसों-बरस यही तो करते करते आए हैं! - ओम थानवी) 

हरा-भरा है देश
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हरे-भरे हैं खेत
मगर खलिहान नहीं:
बहुत महतो का मान --
मगर दो मुट्ठी धान नहीं।
भरा है दिल
पर नीयत नहीं:
हरी है कोख --
तबीयत नहीं।

भरी हैं आंखें
पेट नहीं:
भरे हैं बनिये के कागज --
टेंट नहीं।

हरा-भरा है देशः
रुंधा मिट्टी में ताप
पोसता है विष-वट का मूल --
फलेंगे जिस में शाप।

मरा क्या और मरे
इस लिए अगर जिये तो क्याः
जिसे पीने को पानी नहीं
लहू का घूंट पिये तो क्या;

पकेगा फल, चखना होगा
उन्हीं को जो जीते हैं आजः
जिन्हें है बहुत शील का ज्ञान --
नहीं है लाज।

तपी मिट्टी जो सोख न ले
अरे, क्या है इतना पानी?
कि व्यर्थ है उद्बोधन, आह्वान --
व्यर्थ कवि की बानी?

बांगर और खादर
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बांगर में
राजाजी का बाग है,
चारों ओर दीवार है,
जिस में एक द्वार है,
बीच-बाग कुआं है
बहुत-बहुत गहरा।
और उस का जल
मीठा, निर्मल, शीतल।
कुएं तो राजाजी के और भी हैं
--
एक चौगान में, एक बाजार में --
पर इस पर रहता है पहरा।

खादर में
राजाजी के पुरवे हैं,
मिट्टी के घरवे हैं,
आगे खुली रेती के पार
सदानीरा नदी है।

गांवों के गंवार
उसी में नहाते हैं,
कपड़े फींचते हैं,
आचमन करते हैं,
डांगर भंसाते हैं,
उसी से पानी उलीच
पहलेज सींचते हैं,
और जो मर जाएं उनकी मिट्टी भी
वहीं होनी बदी है।

कुएं का पानी
राजाजी मंगाते हैं,
शौक से पीते हैं।
नदी पर लोग सब जाते हैं,
उस के किनारे मरते हैं
उस के सहारे जीते हैं।

बांगर का कुआं
राजाजी का अपना है,
लोक-जन के लिए एक
कहानी है, सपना है।

खादर की नदी नहीं
किसी की बपौती की,
पुरवे के हर घरवे को
गंगा है अपनी कठौती की।

हिरोशिमा
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एक दिन सहसा
सूरज निकला
अरे क्षितिज पर नहीं,
नगर के चौकः
धूप बरसी
पर अंतरिक्ष से नहीं,
फटी मिट्टी से।

छायाएं मानव-जन की
दिशाहीन
सब ओर पड़ीं -- वह सूरज
नहीं उगा था पूरब में, वह
बरसा सहसा
बीचों-बीच नगर केः
काल-सूर्य के रथ के
पहियों के ज्यों अरे टूट कर
बिखर गए हों
दसों दिशा में।

कुछ क्षण का वह उदय-अस्त!
केवल एक प्रज्वलित क्षण की
दृश्य सोख लेने वाली दोपहरी।
फिर?
छायाएं मानव जन की
नहीं मिटीं लंबी हो-हो करः
मानव ही सब भाप हो गए
छायाएं तो अभी लिखी हैं
झुलसे हुए पत्थरों पर
उजड़ी सड़कों की गच पर।

मानव का रचा हुआ सूरज
मानव को भाप बना कर सोख गया।
पत्थर पर लिखी हुई यह
जली हुई छाया
मानव की साखी है।

दास-व्यापारी
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हम आए हैं
दूर के व्यापारी
माल बेचने के लिए लाए हैं:
मालः जीवित, गंधित, स्पंदित
छटपटाती शिखाएं रूप की
तृषा की
ईर्षा की, वासना की, हंसी की, हिंसा की
और एक शब्दातीत दर्द की, घृणा कीः
मानवता के चरम अपमान की!
चरम जिजीविषा की!

मालः किन्हीं की माताएं, बहुएं, बेटियें, बहनें:
किन्हीं पीछे छूट गयों की, लुट गयों की,
जो बिकेंगी, क्यों कि बेची जाने को तो लाई गई हैं
यहां की हो कर रहने,
यही सहने
अपना हो जाता किन्हीं और की माताएं, बहुएं,
बेटियें, बहनें!
जो रौंदी गयीं, रौंदी जायगी
और यों मरेंगी नहीं, टिकेंगी।

हमारा तो व्यापार हैः
घर हमारा सागर पार है।
आप का मालः हमारा मोलः
फिर आप का संसार है
हमारा तो बेड़ा तैयार है!
हम फिर आएंगे
पर इन्हें नहीं पहचानेंगे,
नया माल लाएंगे, नया सोना उगाहेंगे!
और आप भी ऐसा ही चाहेंगे
आप भी तो पिछला इतिहास नहीं मानेंगे!

दो ही तो सच्चाइयां हैं
एक ठोस, पार्थिव, शरीरी -- मांसल रूप की;
एक द्रव, वायवी, आत्मिक -- वासना की धधक की।
बाकी आगे मृषा की, आत्म-सम्मोहन की
असंख्य खाइयां हैं!

इतिहास! इधर इति, उधर हास!
फिर क्यों उसे ले कर इतना त्रास? 
क्या दास ही बिकते हैं,
इतिहास नहीं बिकता
बोली लगाइए --
माल ले जाइए --
दाम चुकाइए --
हमें चलता कीजिए
फिर रंगरलियां मनाइए
पीढ़ियां पैदा कीजिए
और पीढ़ियों का इतिहास रचवाइए!

हम फिर आएंगेः
हमारा व्यापार है।
आप तो मालिक हैं:
आप पर हमारा दारोमदार है।

उस के पैरों में बिवाइयां
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उस के पैरों में बिवाइयां थीं
उस के खेत में
सूखे की फटन
और उस की आंखें
दोनों को जोड़ती थीं।

उस के पैरों की फटन में
मैं ने मोम गला कर भरी
उस की जमीन में
मैं अपना हृदय गला कर भरता हूं,
भरता आया हूं
पर जानता हूं कि उसे पानी चाहिए
जो मैं ला नहीं सकता।

मेरे हृदय का गलना
उस के किस काम का?
तब क्या वह मेरा पाखंड है?
यह मेरा प्रश्न
मेरे पैरों की फटन है 
और मेरी जमीन भी...

मेरे देश की आंखें
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नहीं, ये मेरे देश की आंखें नहीं हैं
पुते गालों के ऊपर
नकली भंवों के नीचे
छाया प्यार के छलावे बिछाती
मुकुर से उठायी हुई
मुस्कान मुस्कुराती
ये आंखें --
नहीं, ये मेरे देश की नहीं हैं...

तनाव से झुर्रियां पड़ी कोरों की दरार से
शरारे छोड़ती घृणा से सिकुड़ी पुतलियां --
नहीं, ये मेरे देश की आंखें नहीं हैं...

वन डालियों के बीच से
चौंकी अनपहचानी
कभी झांकती हैं
वे आंखें,
मेरे देश की आंखें;
खेतों के पार
मेड़ की लीक धारे
क्षिति-रेखा को खोजती
सूनी कभी ताकती हैं
वे आंखें...

उसने
झुकी कमर सीधी की
माथे से पसीना पोंछा
डलिया हाथ से छोड़ी
और उड़ी धूल के बादल के
बीच में से झलमलाते
जाड़ों की अमावास में से
मैले चांद-चेहरे सकुचाते
में टंकी थकी पलकें
उठायीं --
और कितने काल-सागरों के पार तैर आयीं
मेरे देश की आंखें...

देखिए न मेरी कारगुजारी
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अब देखिए न मेरी कारगुजारी
कि मैं मंगनी के घोड़े पर
सवारी कर
ठाकुर साहब के लिए उन की रियाया से लगान
और सेठ साहब के लिए पंसार-हट्टे की हर दूकान
से किराया
वसूल कर लाया हूं

थैली वाले को थैली
तोड़े वाले को तोड़ा
--
और घोड़े वाले को घोड़ा।

सब को सब का लौटा दिया
अब मेरे पास यह घमंड है
कि सारा समाज मेरा एहसानमन्द है।

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