Mar 30, 2012

राजभाषा विभाग ने जारी किया वर्ष 2012-13 का वार्षिक कार्यक्रम

राजभाषा विभाग ने वित्तीय वर्ष 2012-13 के लिए वार्षिक कार्यक्रम जारी कर दिया है। इस कार्यक्रम में वर्ष 2011-12 के वार्षिक कार्यक्रम की बजाय लक्ष्यों का आधार वर्ष 2010-11 के कार्यक्रम को बनाया गया लगता है। ज्यादा कुछ बदलाव तो नहीं है लेकिन विदेश स्थित कार्यालयों का वर्ष में एक बार संयुक्त निरीक्षण किए जाने का भी लक्ष्य है। यह निरीक्षण संबंधित मंत्रालय/कार्यालय/उपक्रम के अधिकारियों तथा राजभाषा विभाग के अधिकारियों द्वारा संयुक्त रूप से किया जाएगा। गृह राज्य मंत्री द्वारा जारी इस कार्यक्रम में हिन्दी में शत-प्रतिशत कार्य करने के लिए विनिर्दिष्ट किए जाने वाले अनुभागों के लिए 40%, 30% तथा 20% का लक्ष्य क्रमश: क, ख और ग क्षेत्र के लिए रखा गया है। कुछ वर्ष पहले तक यह लक्ष्य न्यूनतम 8 अनुभागों का हुआ करता था। विस्तृत कार्यक्रम राजभाषा विभाग की वेबसाइट के नीचे दिए लिंक से डाउन लोड किया जा सकता है- 





Mar 29, 2012

आई फोन और हिन्दी/ इंडिक यूनिकोड के लिए क्विलपैड का कमाल

क्विल पैड टच के जरिये आई फोन में हिंदी यूनिकोड में संदेश लिखना बेहद कमाल का अनुभव है। भारतीय लिपियों की विशिष्टता के कारण, विशेषकर मात्राओं के कारण टंकण की जो समस्या आती है उसका बड़ा ही प्यारा समाधान  क्विल पैड टच ने उपलब्ध कराया है। टच स्क्रीन पर जब भी मात्रा लगानी हो तो टाइप करने की बजाय अंगुली से अपनी लिखावट में मात्रा लगा दीजिए काम हो जाएगा, कुछ भी ढूढ़ने ने की आवश्यकता नहीं है। टच क्विलपैड की  इस करामात को नीचे दिए चित्रों से आसानी से समझा जा सकता है-





काश, ब्लैकबेरी भी रिम में कुछ ऐसा कर दे तो बात बन जाए। 
-अजय मलिक  

Mar 12, 2012

"मुझे जीने दो" के बाद "पान सिंह तोमर"

            ज़रूरी नहीं कि मेरी बात पर विश्वास किया जाए याकि मेरे कथन से सहमत हुआ जाए... मगर मुझे लगता है कि दुर्खीम और कारलाइल के सिद्धांतों को समेटती पान सिंह तोमर भारतीय समाज, राजनीति और व्यवस्था पर उठने वाले हर सवाल का जवाब ढूँढती है और इतनी गहराई से ढूँढती है कि स्वयं जवाब मुँह छुपाने को विवश हो जाता है। इसे सिर्फ एक फिल्म कहकर या दो-तीन घंटे का मनोरंजन मानकर भुलाया नहीं जा सकता। इसमें हर वह बात है जो सेल्यूलाइड पर जिंदगी उकेरने के लिए चाहिए। डाकुओं के जीवन पर 'मुझे जीने दो' के बाद शायद यह पहली फिल्म है जो मुझे जीने दो से कई कदम, कई फ़र्लांग, कई मील आगे पहुँच गई है। किसी भी मैडल को मौत  इस रूप में तो नहीं ही मिलनी चाहिए।  काश व्यवस्था और आदमी के बीच इतनी खाई न खिची होती! सभी कलाकारों, निर्देशक, पटकथा लेखक, सिनेमेटोग्राफर को और हर उस शख्स को जो इस फिल्म से जुड़ा है - बधाई। यदि फिल्म देखने का मन है तो पहले 'पान सिंह तोमर' पर विचार करें...  
-अजय मलिक

Mar 10, 2012

25 बरस पहले का हिन्दी जुनून जो आज भी जीने नहीं देता


इंग्लैंड में अंग्रेज़ी कैसे लागू की गई

कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के भूतपूर्व कुलपति डॉ गणपति चंद्र गुप्त का यह आलेख सितंबर 1985 में धर्मयुग में प्रकाशित हुआ था। आज भी इस आलेख के मायने नहीं बदले हैं।


सदाबहार संगीतकार रवि को श्रद्धांजलि

मेरे पास शब्द नहीं हैं, बस सितंबर 1993 में धर्मयुग में प्रकाशित एक आलेख यहाँ दे रहा हूँ।


Mar 7, 2012

होली की हार्दिक शुभकामनाएँ

Mar 4, 2012

पान सिंह तोमर, इरफान और बीहड़

कई दिनों से लगातार पान सिंह तोमर की चर्चा सुन रहा हूँ। जब भी इंटरनेट खोलता हूँ तो इरफान नज़र आता है। हर ओर उसकी तारीफ़ों के पुल बाँधे जा रहे हैं... बहुत खुशी होती है उसके अभिनय की तारीफ़ें सुनकर। कभी इरफान से मेरा भी परिचय हुआ करता था... इस ख्याल से खुशी ओर बढ़ जाती है। पान सिंह तोमर फिल्म अभी देख तो नहीं पाया हूँ मगर बहुत जल्दी देखूंगा।
2
आजकल सूखी नदियों में भी बिना पानी उफान आ रहा है। कुछ लोगों ने मान लिया है कि अब नदियों में पानी की जरूरत ही नहीं बची है। भुरभुराती रेत के व्यापार में जो नफा है वह पानी की सिंचाई से उगने वाली फसलों में कहाँ? मगर नदियों का रेत बिना पानी, अधिक दिनों तक नहीं ठहरता। रेत पानी के आने से आता है, रेत के साथ पानी नहीं आता। रेत से किरकिराई आँखें पानी के बिना साफ नहीं हो सकतीं... सुकून पानी से ही मिलता है, रेत अंतत: या तो उड़ जाता है या आँखों की रोशनी लील जाता है। 

न्याय और अन्याय की बाजीगरी से आँखें चौंधियाना छोड़ चुकी हैं। अब थकी हुई आँखों में अंधेरा उतना नहीं चुभता जितनी रोशनी चुभती है। आँखें अंधेरे की आदी हो चली हैं मगर मन अब भी उजाले की आशा लगाए बैठा है। मन की मुराद कभी पूरी होती है भला। मौन सबसे बड़ा हथियार हो सकता है मगर चुप रहने की आदत विकसित ही नहीं हो पाई। अंत में हर बार इसी निष्कर्ष पर पहुँचता हूँ कि ईमानदार हो या बे-ईमान सब पैदा होते हैं और अंतत: मर ही जाते हैं, ये दुनिया चलती चली जाती है। जीने के लिए ईमानदारी या बे-इमानी कोई तो बहाना चाहिए...
कुछ लोगों के साथ न्याय हो गया और इसी न्याय के साथ कुछ ऐसे लोग जिनके साथ न्याय करते हुए सुधार का अवसर दिया गया था उन्हें फिर कबाब, शबाब और साक़ी के साथ मयखाने भिजवा दिया गया। नागरिक, समाज और सामाजिक व्यवस्था में कहीं कुछ बड़े... बहुत बड़े परिवर्तन की आवश्यकता है... मगर पूरा विश्व ही अशांति की चपेट में है। तीन लोगों की फिर से आवश्यकता है- गांधी, सुभाष और सरदार पटेल
कल की चिंता में आज को समाप्त कर देना और फिर कल फिर से बीते हुए इस आज की मूर्खताओं का चिंतन करते हुए ज़िंदगी बर्बाद करना, अर्थहीन है मगर आदमी ऐसे ही तो जीता है।
एक बीहड़ है हर शहर में, हर गाँव में, हर कस्बे में और हर आदमी के दिल में और दिमाग सिर्फ दुकान भर रह गए हैं...

Mar 3, 2012

सी टी बी और सीएचटीआई पर हिन्दी समाचार पत्रों में छपी कुछ खबरें




क्रमश: नई दुनियाँ, दैनिक हिंदुस्तान और दैनिक भास्कर से साभार