Sep 20, 2011

दो नंबरी तीन हों तो क्या हो...

लगभग 18 वर्ष पूर्व एक लेख लिखा था और शायद राष्ट्रीय सहारा में छपा था। लेख का शीर्षक था- "अधिकांश सुपर स्टारों का खास रिश्ता है दो के अंक से।" पाँच-छह साल पहले एक टी वी चैनल पर इसी विषय पर एक कार्यक्रम भी आया था।
संजय मासूम ने आज भट्ट साहब को जन्मदिन की बधाई दी है फेसबुक के माध्यम से। भट्ट साहब को मेरी ओर से भी बधाई। मैं उनसे कभी मिला तो नहीं मगर बंबई के मुंबई में बदलने के दौर में जब शक्ति सामंत सेंसर बोर्ड के अध्यक्ष हुआ करते थे तब एक बार फोन पर उनसे जरूर बातचीत हुई थी। 
इस दो नंबर के खेल में या ये कहूँ कि घालमेल में बहुत कुछ छूटता चला गया। आज सुबह से यही सोचता रहा हूँ कि कैसे मुम्बई छूट गई और कैसे मद्रास में छत मिली?  बहुत पीड़ादायक है उस सब को याद करना। कल किसी ने बड़ा ही लंबा चौड़ा मनोवैज्ञानिक विश्लेषण करके बताया कि अवचेतन में मैं दिल्ली में बसने का सपना छुपाए हूँ। मैंने जो मनोविज्ञान पढ़ा था उसके अनुसार मेरे चेतन, अचेतन और अवचेतन में तो मुंबई से इतर कभी कुछ नहीं था। बचपन में उस मायानगरी के जितने सपने मैंने देखे थे, वे सात साल में पूरे हो ही नहीं सकते थे। चौदह वर्ष का वनवास भी उन्हें नहीं तोड़ सकता था।
अब कुछ बुड्ढा सा होने लगा हूँ तो मुंबई की भागदौड़ से डर जाता हूँ और सोचता हूँ कि मद्रास के इतर कहीं और गुजारा कर पाना मुश्किल होगा। दिल्ली में पढ़ाई की थी तीन साल और उसके बाद पता नहीं क्यों दिल्ली का कोई सपना मैंने नहीं देखा। दिल्ली से जब 1989 में मद्रास के लिए चला था तब भी मन में यही था कि दिल्ली से दूर, कहीं बहुत दूर, दूरतर  जाया जाए। ...और चला गया था लक्षद्वीप। वहाँ से चला तो वाया तिरुच्चि अंतत: बंबई की राजधानी में चेयरकार में बैठकर चर्च गेट के बाहर खड़ा पाया था स्वयं को। तेज़ बारिश हो रही थी उस दिन... मटमैला सा खादी का मोटा कुर्ता और पाजामा पहने सिर पर तीस इंच का सूटकेस लादे हुए मैं डरा-डरा सा टैक्सी की लाइन में खड़ा था। राजधानी और टैक्सी में सफर करने का वह मेरा पहला अवसर था।  
मुझ देहाती को मुंबई रास भी खूब आई थी। मगर वहाँ की लोकल की धकापेल में कुर्ता पाजामा पहनना धीरे-धीरे छूट गया। मेरी पहचान कुर्ता-पाजामा पहने दाढीवाले गंजे के रूप में हुआ करती थी। बहरहाल कल मुझे मनोवैज्ञानिक की मनोदशा ने बहुत थका दिया। यह कैसा मनोविज्ञान है मित्रवर का, जो अपने दिल्ली से जुड़ाव को, दिल्ली छूट जाने के डर को मुझ पर प्रक्षेपित कर, मेरे अवचेतन/अचेतन पर थोप देता है। यह दो नंबरियों की नियति है कि वे देवकीनन्दन खत्री जी के भूतनाथ बना दिए जाते या बन जाते हैं। भूतनाथ नाम से कितना भयानक लगता है, मगर...   
दो नंबरियों की स्थिति कितनी विचित्र है...दो नंबरियों पर वह लेख भी अपनी दुर्दशा देखकर ही लिखा गया था। अपने दो नंबरीपन को ज़्यादा तरजीह देने के लिए लिखे गए उस लेख की परिणति कुछ इस रूप में हुई दो नंबरी एक से बढ़कर तीन हो गए। दोनों बच्चे भी दो नंबरी हुए। मैं ग्यारह तारीख को पैदा हुआ था तो बेटा दो को और बेटी बीस तारीख को पैदा हुई।  
ऐसा सुनने में आया है कि अश्लेषा नक्षत्र में जन्म लेने वालों से दक्षिण भारत में लोग बहुत दूर भागते हैं और  अश्लेषा से दूर भागने वालों के यहाँ पैदा होने वाले बच्चे अक्सर अश्लेषा नक्षत्र में ही जन्मते हैं।
जाने-अनजाने मेरे अधिकांश मित्र दो और आठ नंबरी हैं। राहुल देव जी को जब पहली बार बताया था कि दोनों बच्चे भी दो नंबरी हैं  तो उनके मुंह से यही निकला था- अरे और दो भटकने वाले आ गए।  
भट्ट जी हों या राहुल देव जी, अमिताभ बच्चन हों या शाहरुख खान, दिलीपकुमार हों या राजेश खन्ना या फिर संजय दत्त... सारे दो नंबरी दो नंबर से बड़ा मोह रखते हैं...जहां तक भटकाव की बात है तो कालकूट के 'कहाँ पाऊँ उसे' से अधिक भटकाव कहीं नहीं मिल सकता... यह जीवन भटकते-भटकते अपनी मंजिल पा ही जाता है। -और जो दो नंबरी इस भटकाव में कर जाते हैं उसे कदाचित भुलाया तो नहीं ही जा सकता है। दो नंबर चंद्रमा का माना जाता है... और बेचारे चंद्रमा को बिना ग्रहण के भी रोज छोटा-बड़ा होना पड़ता है... वह अमावस की काली रात का भी साक्षी होता है और पूर्णिमा की सारे संसार को चांदी में ढाल देने वाली चाँदनी रात का भी। रात...अंधेरा... चाँदनी... अमावस्या और पूर्णिमा इन सभी से गहरा रिश्ता है चंद्रमा का।  दो नंबर भी कभी चमकता है, कभी टिमटिमाता है, कभी काली रात के अंधेरे में छुप जाता है और फिर चमकता है ठीक चाँद की तरह... चंद्रमा का होना भी यादगार होता है और न होना भी अविस्मरणीय होता है...
दो नंबर के चक्कर में इतनी चकल्लस के बाद सोच रहा हूँ "-क्या इसी को अपने मुंह मियाँ मिट्ठू बनना कहते हैं?
         

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