Sep 18, 2011

रचना जो प्रस्तावना में ही खो गई

कल किसने देखा है? न आने वाला कल आता है न जाने वाला ही कभी लौटता है। आने वाले की आशा तो की जा सकती है मगर चले जाने वाले की तो बस कल्पना ही की जा सकती है। बीते कल में आने वाले कल की जो उम्मीदें थीं वे एक और बीते हुए कल में समा गईं। एक मुस्कराते हुए सौम्य चेहरे से खिलखिलाहट और किलकारियों की आशा में चमकते दो गौरवान्वित चेहरों पर अचानक ढेर सारी झुर्रियां छा गईं और रचना प्रस्तावना में ही खो गई।
एक रचना जो सैंकड़ों, हजारों और शायद लाखों ज़िंदगियों की उम्मीद और मुस्कान बनने को आतुर थी, वह अचानक उपसंहार तक पहुँचते-पहुंचते स्वत: मिट गई। कल शाम से मैं उसी रचना के बारे में सोच रहा हूँ... वह रचना जो अब नहीं है, वह रचना जिसे हम बहुत दूर तक असीमित संभावनाओं के साथ आगे जाता देख रहे थे...जिसके उपचार के भरोसे बुढ़ापे के दस सालों को बारह-पंद्रह तक बढ़ा लेने के सपने हम बहुत सारे लोग देख रहे थे। वह रचना अचानक न जाने कैसे मिट गई। सिर्फ साढ़े तीन महीने पहले जिस रचना के साथ हम लोग बहुत लंबी चौड़ी हांक रहे थे। जो हमें हाँकता देख हँस रही थी, हमारे साथ अपनी संपूर्णता के साथ थी, जिसे सुबह जल्दबाज़ी में हम उठाए बिना ही चले आए थे, वह हमारी रचना, कल से भी पहले कल न जाने क्यों हम सब से रूठकर कहीं खो गई। 
ऐसा भी कभी हो सकता है क्या? विश्वास नहीं हो रहा... मगर करना तो पड़ेगा क्योंकि बीता हुआ कल कभी भी नहीं आता। उस दिव्य आत्मा को जो दिवंगत हो गई, प्रणाम और ईश्वर से प्रार्थना है कि उसे शांति दे... और संबल, साहस और शक्ति दे उन रचनाकारों को जिनकी रचना अब नहीं रही।                 

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