Aug 8, 2010

आना फ्री, जाना फ्री, पकड़े गए तो खाना फ्री...

आज सुबह-सुबह दो मित्रों को जन्मदिन की बधाई देने के बाद दो दिन से बंद नेट को नेटगीयर से किसी तरह चालू किया तो जो एक मात्र मेल मिली उसका संदेश यही था कि आना फ्री, जाना फ्री, पकड़े गए तो खाना फ्री। जिस मित्र ने यह मेल भेजी थी उसका आज मौन व्रत है इसलिए उनसे आज बात कर पाना तो संभव नहीं है इसलिए सोचा कि इस मुद्दे पर मन की भड़ास ब्लॉग के जरिए निकाली जाए।
मित्र ने यह स्लोगन किसी रेलवे स्टेशन पर देखा था। बात बड़ी ही मौजू है और ठीक उसी तर्ज़ पर है कि बारह बजे तक लेट नहीं और तीन के बाद भेंट नहीं। बात अढ़ाई साल पुरानी है, रेलगाड़ी के आने का समय हो चुका था और मुझे कंप्यूटराइज्ड पूछताछ केंद्र पर लगातार बस एक ही जवाब मिल रहा था - सर्वर डाउन है साहब। साथ खड़े लोगों ने बताया यहाँ यह रोज का किस्सा है जनाब। शाम के छः बजे थे, नैसर्गिक रौशनी अभी भी मौजूद थी मगर जहां भी गया-जिस भी केबिन में पूछताछ के लिए गया, सब जगह लोग बीमार थे और गुर्दे की आयुर्वेदिक दवा से लबालब गिलास लिए स्वचिकित्सा में मग्न थे। अंत में रेलगाड़ी आ गई और में ए सी टू टायर के डिब्बे में घुसने को मजबूर हो गया। मेरी बर्थ पर एक सज्जन थकान मिटा रहे थे।
विनम्र निवेदन करने पर उन्होंने टेढ़ी नजर से मुझे देखा, नज़रों ही से मुझे लानत-मलानत दी और फिर कुछ सोचकर सामने वाली बर्थ पर पसर गए। मैं अपनी नासमझी और अव्यावहारिकता पर बेहद शर्मिन्दा हुआ। अन्य लोग इतने नासमझ याकि भाग्यवान नहीं थे, वे खड़े रहे...एक घंटा...दो घंटे ... फिर जब सज्जन जी की थकान मिट गई याकि उनकी मंजिल आ गई तो वे उठ खड़े हुए , एक अंगडाई ली मानों सारे जहां की चिंताओं से मुक्त हो रहे रहे हों । फिर एक हिकारत भरी नज़र से खड़े हुए निष्क्रिय प्राणियों को देखा और प्लेटफार्म पर उतर कर सिर की सीध में चले गए। जब फिर से गाड़ी चली तो टिकट बाबू ने आकर सारे निरीह प्राणियों को अपने रुआब से अच्छी तरह लस्त-पस्त कर दिया।
अज्ञेय जी ने अपने-अपने अजनबी में लिखा है - "माला के मनके गिनने से उनका कुछ नहीं बदलता, मगर जिसे मनके ही गुनने हों उसे वैसा न करने का वश कहाँ?"
यह बात तथाकथित अच्छाई और अकथित बुराई दोनों पर बड़ी सटीक बैठती है। हम सब किसी न किसी मानसिक बोझ से त्रस्त हैं याकि मानसिक रोग से ग्रसित हैं। तथाकथित सच्चाई सबसे घातक मानसिक रोग है। अकथित असत्य इस रोग के लिए उत्प्रेरक का कार्य करता है। रोगी को सब कुछ समझ में आता है मगर वह स्वयं का सिर फोड़ने से बाज़ नहीं आता। कई बार उसे इस रोग के कीटाणु इतना अधिक कमजोर बना देते हैं कि वह सरशय्या पर लेट कर दम तोड़कर ही दम लेता है।
दूसरी ओर आना फ्री-जाना फ्री वाला पूरी तरह निश्चिंत रहता है कि यदि अंतिम परिणति को भी प्राप्त हुए तो भी सौदा घाटे का बिलकुल नहीं रहेगा, रोज की चिक-चिक से मुक्ति मिलने के साथ-साथ खाने का भी फ्री जुगाड़ हो जाएगा। कहीं न कहीं, किसी न किसी को, इलाज़ की सख्त जरुरत जरूर है। बस परेशानी यही है कि कुछ लाइलाज बीमारियों का न कोई अस्पताल है न कोई डॉक्टर... और शायद हो पाएगा भी नहीं।

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