Sep 7, 2009

मेरे गुरु...८ समापन किस्त

वो मावस वाली होली

-अजय मलिक

कलौंदा हमारे गाँव से करीब पांच किलोमीटर पड़ता था। कक्षा पांच की परीक्षा जो एक तरह की बोर्ड की परीक्षा जैसी थी एक और गाँव में हुई। गेसूपुर...यही नाम था उस गाँव का। हमारे प्रधानाध्यापक थे श्री नानक चंद शर्मा. यह संयोग ही था कि वे मेरे पिताजी के भी प्राथमिक शिक्षक रहे थे। जब बीस बरस बाद मैं स्कूल जाने लायक हुआ तो फिर से उनका तबादला छांयसा यानी हमारे गाँव में हो गया. स्कूल का पहला दिन ...चार लड़के हाथ-पैर पकड़ कर हवा में लटकाकर लाए थे। मैं था कि हाय-हाय कर चीख रहा था... आंसुओं की गंगा-जमना तो बह ही रही थी।
मास्टर जी ने कहा- "चुप हो जाओ।"
मैं चुप हो गया। उनका रुआब ही कुछ ऐसा था। सुबकियां फिर भी जारी रहीं। एक लचकदार डंडी (डंडे की छोटी बहन) जो रोज सुबह ताज़ा-ताज़ा मंगाई जाती थी...कट्ठे की। मार उतनी नहीं पड़ती थी पर मार का डर ऐसा कि बुदका-तख्ती-कलम सब टकाटक। शाम को छुट्टी से पहले गिनती-पहाड़ों का दौर। पूरी क्लास गोल-गोल बैठ जाती और फिर पूरी ताकत से हर किसी को चिल्लाना होता था- एकीकाई-दोईकाई... दसेक्धाइन (दस -एक-दहायीं)। आज भी उन दिनों की दो-दूनी-चार हो या फिर नाथ शंभु धनु भंजनिहारा...दिमाग पर अमिट स्याही से छपे हैं।
गाँव से कलौंदा, छठी कक्षा में रोज पांच किमी जाना और फिर इतना ही पैदल वापिस आना। बरसात के दिनों में रौह (हल्की सी बाढ़) आ जाती तो कभी-कभी गर्दन तक पानी से भी निकल कर जाना होता। किताब-कापी-कपड़े सब बस्ते में और बस्ता ऊपर उठे हुए हाथों में।
बरसात की सबसे मजेदार बात भरपेट जामुन खाने से जुड़ी होती थी। रौह के इलाके से निकलकर स्यामा के बाग़ जिसमें जामुन के पेड़ों की भरमार थी खूब जामुन खाए और इकट्ठे किए जाते। महीनों तक जीभ की जामुनी रंगत बरकरार रहती। जामुन के पेड़ की कमजोर शाखों पर चढ़कर हीरे की तरह चमकते जामुनों की लालसा में एक-आध बार हाथ-पैर भी टूटे मगर जामुनों का स्वाद गिरकर भी कहाँ संभलने देता था।
माँ देशी घी के पराँठे (जिन्हें उन दिनों हम लोग परामठे कहते थे) या लोनी घी से सराबोर मोटी-मोटी रोटियाँ बाँध देती थी। कभी-कभी छौंकी गई हरी मिर्चें...क्या तो मज़ेदार लगता था वह सब। अमीरों की कल्पना ऐसी कि ...उनके पास तो बहुत सारा घी होता होगा ...वे तो रोटियाँ घी की मटकी में डाल देते होंगे।
स्वतंत्र भारत इंटर कॉलेज, कलौंदा में एक दिन हमारे हिंदी अध्यापक श्री महेंद्र भारद्वाज जी शायद किसी से झगड़ कर आए थे । इसी तनाव में उन्होंने पूरी क्लास में से एक को छोड़कर बाकी सब को मुर्गा बनाकर जो डंडा बजाना शुरू किया तो नज़ारा कुरुक्षेत्र के मैदान की तरह नज़र आया। दुर्योधन बैठा डरता रहा और सारे पांडव चित कर दिए गए। इसी बीच एक और गुरुदेव पंडित नारायण दत्त शर्मा जी उस रणभूमि की ओर से गुजरे। हम शहीदों की चीत्कार सुनकर पूछ बैठे -"अरे मेहंदर , क्या हुआ?"
भारद्वाज जी बोले-" इन सब को ये तक पता नहीं है कि होली मावस (अमावस्या) को पड़ती है और दिवाली पूरनमासी (पूर्णिमा) को..."
पंडित जी ने पहले तो अपना सिर धुन लिया मगर उसके बाद जो महेंद्र जी की क्लास ली वह मत पूछिए। शब्दों के तीरों से कितना तो छलनी किया था ...
कक्षा आठ में न जाने कैसे उत्तर-प्रदेश सरकार द्वारा आयोजित एकीकृत छात्रवृत्ति परीक्षा में मैं भी पास हो गया। शायद हम सिर्फ दो लड़के पास हुए थे। दस रूपए महीने की छात्रवृत्ति क्या मिली कि समुचित गाइडेंस के अभाव में अपना दिमाग ही खराब हो गया। हम तो अब बहुत बड़े विद्वान बन चुके थे इसलिए पढ़ने-लिखने की जरूरत हमें बची ही नहीं थी। इस शेखचिल्लिपन का परिणाम यह हुआ कि नवीं कक्षा में प्रोमोटेड पास हुए।
दसवीं में फेल होने की पूरी-पूरी संभावनाएं बन चुकी थीं मगर...अब देखिए ये ज़िन्दगी भी कैसे अगर-मगर में उलझती-सुलझती चली जाती है... वे नए-नए आए थे, बेहद गरीब परिवार के होनहार बिरवान...रंग बिल्कुल चिक-चिक काला, नाटा कद बेहद कमजोर काया...उनका नाम था (श्री) कालूराम। उस समय तक जाति-पाति का ऐसा भेदभाव नहीं था। कालूराम जी हमारे नए गुरु जी थे गणित के। उनकी प्रेरणा और आशीर्वाद ही था जो दसवीं की परीक्षा छमाही तक पढ़कर उत्तीर्ण की जा सकी वरना तो आज भी हाथ में वही हल की मूठ होती और पैरों में बिवाइयां। उन्हें शत-शत प्रणाम।
विज्ञान के विद्यार्थी का हिंदी से जुड़ाव ...इ़सकी वज़ह रहे हमारे दसवीं के कक्षाध्यापक श्री हरपाल सिंह जी, उनसे सब डरते थे क्या छात्र-क्या अध्यापक । विशालकाय गठे हुए बदन के धोती कुर्ता पहनने वाले श्री हरपाल सिंह जी। रुतबा था उनका... एक साल में एक बार सबकी इकट्ठी पिटाई करने का उनका अनोखा सिद्धांत था। न काहू से दोस्ती-ना काहू से बैर । बड़े गुणी इंसान थे वे। हिंदी पढ़ाते और चाहते कि विद्यार्थी वो ना लिखें जो वे लिखाते हैं बल्कि सब अपना-अपना कुछ नया लिखें।
फिर ग्यारहवीं में हिंदी पढ़ाने आए उप-प्रधानाचार्य श्री उदयराज सिंह शिशोदिया जी। सच पूछा जाए तो हिंदी साहित्य से उनके प्रोत्साहन और सराहना ने ही जोड़ा। कुछ बेतुका सा लिख कर दिखाया था उन्हें और उनकी वाह-वाह ने मत पूछिए क्या तो रंग दिखाया। वह कॉलेज अनूठा था... वहां के जितने भी गुरुजनों के नाम गिनाऊं कम ही पड़ेंगे...भौतिकी पढ़ाने वाले श्री आनंदपाल जी हों या वनस्पति विज्ञान पढ़ाने वाले सक्सेना साहब या फिर प्रधानाचार्य श्री राजबीर सिंह शिशोदिया जी... हरि अनंत हरि कथा अनन्ता ...

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